उत्तराखंड के लिए 2 अक्टूबर का दिन एक काले दिन के रूप में इतिहास में दर्ज है 30 साल पहले 1994 को 1-2 अक्टूबर की मध्य रात्रि अलग राज्य की मांग को लेकर दिल्ली जा रहे आंदोलनकारीयों  के साथ मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे में उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा बर्बरता की सारी सीमाएं पार की गई थी, महिलाओं के साथ यूपी पुलिस की क्रूरता भी सामने आई, और 7 आंदोलनकारियों को अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा था.

90 के दशक में पृथक राज्य उत्तराखंड की मांग बड़े जोर शोर से उठ रही थी. तमाम जगह धरने प्रदर्शन हो रहे थे. पहाड़ के गांधी इंद्रमणि बडोनी के आह्वान पर 2 अक्टूबर 1994 को उत्तराखंड के आंदोलनकारीयों को दिल्ली के जंतर-मंतर पर जाना था, और शांतिपूर्ण आंदोलन अलग राज्य के लिए करना था, जब  1 अक्टूबर को उत्तराखंड से हजारों की संख्या में युवा,  मातृशक्ति और छात्र दिल्ली के लिए रवाना हुए तो कुछ कुमाऊं से और कुछ गढ़वाल से बसों में भरकर आन्दोलनकारी दिल्ली के लिए रवाना हुए.

कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे के नारे जोर-जोर से हवा में गूंज रहे थे.

वहीँ जैसे ही उत्तर प्रदेश पुलिस ने देखा की कई किलोमीटर तक सिर्फ और सिर्फ आन्दोलनकारियों की ही बसें नजर आ रही है लिहाजा पुलिस ने आन्दोलनकारियों को नारसन से जगह-जगह रोकना शुरू कर दिया कुछ आन्दोलनकारियों को मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर रोक दिया.

आन्दोलनकारियों ने पुलिस से कहा कि हम शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए दिल्ली जा रहे हैं, लेकिन पुलिस ने आंदोलनकारियों की एक न सुनी इसके बाद आंदोलनकारी बस  से उतरकर सड़क पर ही प्रदर्शन करने लगे. ये समय था रात के करीब 10 से 11:00 बजे का, लेकिन उसके बाद पुलिस ने जो अमानवीय व्यवहार आन्दोलनकारियों के साथ किया उसे सुनकर आपके भी रोंगटे खड़े हो जाएंगे आंदोलनकारी जब आज भी 1 अक्टूबर की रात्रि का वह दृश्य सुनाते हैं तो रो पड़ते हैं.

बात दें उसे समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार थी. मुलायम सिंह की पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर लाठी चार्ज करना शुरू कर दिया था. शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे निहत्थे आन्दोलनकारियों के साथ उत्तर प्रदेश पुलिस ने जो बर्बरता कि वो आज भी उत्तराखंड आंदोलन के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है.

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आन्दोलनकारि पुलिस की मार से बचने के लिए खेतों में भागने लगे लेकिन निरंकुश पुलिस ने दमन करना नहीं छोड़ा और उत्तराखंड आंदोलनकारी मां बहनों के साथ अमानवीय व्यवहार शुरू किया. इसके बाद गुस्साए आन्दोलनकारियों ने भी पुलिस के एक्शन की प्रतिक्रिया देनी शुरू की फिर पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर 24 राउंड फायरिंग की,  इस फायरिंग में उत्तराखंड के 7 आन्दोलनकारियों की शहादत हुई और हजारों आंदोलनकारी घायल हुए,

एक और जहां देश 2 अक्टूबर को गांधी जयंती मनाने की तैयारी कर रहा था दूसरी ओर रामपुर तिराहा उत्तराखंडी आन्दोलनकारियों के खून से सन गया था. इसी बीच रामपुर तिराहा के लोगों का मानवीय चेहरा भी सामने आया और स्थानीय लोगों ने आन्दोलनकारियों को अपने घरों में शरण दी और उन्हें खाना भी खिलाया कुछ आन्दोलनकारियों ने अपनी जान बचाने के लिए रामपुर तिराहा मस्जिद में शरण ली थी.

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रामपुर तिराहा गोली कांड के बाद अलग पहाड़ी राज्य का आंदोलन जोर पकड़ता गया 6 सालों तक चले इस लंबे संघर्ष के बाद 9 नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग राज्य उत्तराखंड बना,  इस रामपुर तिराहा कांड में कई पुलिस कर्मियों और प्रशासनिक अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज हुई और फिर 1995 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए. इस कांड में दो दर्जन से अधिक पुलिस वालों पर रेप, डकैती, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ जैसे मामले दर्ज हुए. साथ ही सीबीआई के पास सैकड़ों शिकायत दर्ज हुई, इसके बाद साल 2003 में फायरिंग के मामले में तत्कालीन डीएम अनंत कुमार को भी नाम जद किया गया और उत्तराखंड हाईकोर्ट ने एक पुलिसकर्मी को 7 साल जबकि दो अन्य पुलिस कर्मियों को दो-दो साल की सजा सुनाई, वहीं 2007 में तत्कालीन एसपी बुआ सिंह को भी सीबीआई कोर्ट ने बरी कर दिया और फिर मामला लंबित रहा रामपुर तिराहा कांड को लंबा वक्त बीत गया और राजनीतिक तौर पर पार्टियाँ एक दूसरे दलों पर आरोप लगाते रही लेकिन आज तक आंदोलन कार्यों को न्याय नहीं मिल पाया है.

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