चुनाव में महिलाओं को सीट आरक्षित कर देना अगर सशक्तिकरण माना जा रहा है, तो उनके पोस्टरों में उनकी तस्वीरें क्यों नहीं हैं। यह तो लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन है और महिलाओं के आत्मसम्मान और नेतृत्व क्षमता पर भी प्रश्नचिह्न है।

बता दें विकासनगर से देहरादून की ओर सड़क किनारे लगे चुनावी बैनरों पर महिला प्रत्याशियों की जगह उनके पति की फोटो लगीं हैं। अब ये किस बात का संकेत है। जिन सीटों पर महिलाएं प्रत्याशी हैं, वहां पोस्टरों पर उनके पति या किसी पुरुष संबंधी की तस्वीरें प्रमुखता से लगी हैं, लेकिन महिला प्रत्याशी की तस्वीर या नाम तक ठीक से दिखाई नहीं दे रहा।
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वहीं मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में जगहों पर महिला प्रत्याशियों की तस्वीर तो दूर, नाम तक ठीक से नहीं दर्शाया गया है। पूरा प्रचार, पूरा विमर्श एक पुरुष दिख रहा है जबकि टिकट महिला को दिया गया है। क्या यह महिलाओं को राजनीतिक पहचान से दूर रखने की चाल है क्या महिलाओं को केवल आरक्षित सीटों की खानापूर्ति के लिए खड़ा किया जा रहा है।

क्या यह सच महिला सशक्तिकरण है? जहां महिला स्वयं अपनी पहचान से चुनाव नहीं लड़ सकती, तो भविष्य में जनता का प्रतिनिधित्व किसके हाथों से होगा और कैसे होगा।

यह न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन है, बल्कि महिलाओं के आत्मसम्मान और नेतृत्व क्षमता पर भी प्रश्नचिह्न है। चुनाव आयोग को ऐसी सोच ऐसे मामलों को गंभीरता से लेकर विचार करना चाहिए।
